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गीता
यों यच्छद्ध: स
एव स: ४४,६३६,७८७
शब्द ब्रह्मातिवर्तते ५५ टि०
श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ५५ टि०
सब जीवों के हृद्देश
में ईश्वर विराजमान है,
ईश्वर: सर्वभूतानां
हृद्देशे... ९९,
८२१
माया के
द्वारा यंत्रारूढु की भांति चला रहा
है
९९,२५५,८२१
सहयज्ञाः प्रजा
सुष्टवा... १०८ टि०
मानुषीं तनुमाश्रितम् १३२, १६२ टि०
मुक्त आत्मा को भी जीवन के सभी कर्म
करते रहने चाहियें १३८
ज्ञानी मनुष्य को अपने जीवन के ढंग से
लोगों को संसार-कर्म से हटाना
नहीं
चाहिये १४६
यदि मैं कर्म न करूं तो... १४६
परं भावम् १६१ टि०
पत्र पुष्प फलं तोयं यो मे भत्या
प्रयच्छति... १६४
टि०
कर्म के प्रेरक के रूप
में फलों की कामना
का त्याग १७९
''धर्म'' २०४ टि०
सब धर्मों का त्याग कर मेरी शरण ले २१०,
२७८,७१९
स निश्चेयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा
२२२ टि०, २४७ टि०
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
२२४ टि०
अंश: सनातन: २३१ टि०, ४३९
पराप्रकृतिर्जीवभूता २३१ टि०, ५०३,७५४,
७७६,७८२,७८६
गुणों की क्रिया से पीछे हटकर... साक्षी
की भांति... २४०
त्वया हृषीकेष हृदिस्थितेन यथा
नियुक्तोऽस्मि.. .२५४ टि०, ५०४ टि०
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जो अंदर से स्वतंत्र
है वह सभी कर्म करता
हुआ भी कुछ नहीं करता २७३
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते
२७४ टि०
मुक्त मनुष्य का कर्म कामना से परिचालित
नहीं... लोकसंग्रह... २७५
कर्तव्य कर्म २७६
स्वभाव के
द्वारा निर्धारित कार्य... २७७
सर्वकृत् ३०१
ज्ञान परम पवित्र वस्तु
है ३११
समस्त विचार को बहिष्कृत कर बिल्कुल
विचार न करने... ३१८
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ३२१
समाधिस्थ ३२४
अहंभाव से मुक्ति की मांग सूक्ष्म...
अर्जुन... ३३४
इन रुधिर लिप्त भोगों को भोगने से तो...
३३४
ये दुर्बलता, भ्रम और अहंकार हैं जो तेरे
अंदर बोल रहे हैं... युद्ध कर
विजय प्राप्त कर... ३३४
युक्ताहार विहार का सिद्धांत ३५१
एषा ब्राह्मी स्थिति पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति
३६८
तीन पुरुष : क्षर, अक्षर, परात्पर ३८३
सर्वं ब्रह्म ४०७,७०९
केवलैरिन्द्रियै: ४०९ टि०, ४१०
प्रविलीयन्ते
कर्माणि ४११
हर्ष किंवा शोक
में सब भूतों को आत्मवत्
देखना ४२२
दुःखम् आप्तुम् ५३८
सर्व कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते ५५५
यस्मात् क्षरमतीतो... स सर्ववित् भजति मां
सर्वभावेन... ५५६
भक्ति से मनुष्य मुझे पूर्ण रूप से जान लेता
है ५५७
ज्ञान की भांति भक्ति से भी पुरुषोत्तम के
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