उद्धरण-सूची

 

 

उपनिषद्

 

 जब देवताओं के सामने पशुओं के रूप

उपस्थित किये गये... ज्यों ही

मनुष्य आया...९

जिस प्रकार पहिये के आरे उसके केन्द्र में

जुड़े... १० टि०

मनोमय: प्राण शरीर नेता ११ टि०

ऐसी आत्मा जो 'स्वप्न' में निवास करती है

२३ टि०

वह एकीकृत सत्ता... सबकी स्वामिनी,

सर्वज्ञात्री... २५ टि०

तदेव ब्रह्म त्व विद्धि नेदं यदिदमुपासते

७४ टि०

इहैव ७५

पत्नी पत्नी के लिये नहीं, आत्मा के लिये

प्यारी १०९

हृदये गुहायाम् १५२

अंतरात्मा इस देहसंघात में मनुष्य के अंगूठे

से बड़ा नहीं १५६

बुद्धे: परस्तु स: २९७

नेति-नेति २९९

अंतरात्मा के द्वार बाहर की ओर खुलते हैं

३०५

आत्मानं विद्धि ३०६

सोऽहमस्मि ३०८, ३४५,४२९,४९३ टि०,

 ७८१

ओ३म् ३२१

अमृतस्य पुत्राः ३३०

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: ३३६ टि०, ७१७

सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूत् ३४३ टि०

तत्त्वमसि ३४५

संपूर्ण मनश्चेताना इस प्राण से ओतप्रोत ३५५

यो वै भूमा तत्सुखम्... ३६० टि०

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति...

 

तत्र को मोह: क: शोक

एकत्वमनुपश्यत ३७३ टि०, ४२०,

४३०,७३६

यस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञात ३७८ टि०

निर्गुणो गुणी ३८३,७६६

स: ३८६

आत्मविस्तार और रूपांतर की समावेशकारी

क्रिया ४०६

न कर्म लिप्यते नरे ४११

जगत्यां जगत् ४२१

पुरुष पांच प्रकार का ४६८

जड़तत्त्व [अन्न] को ही ब्रह्म मानो..

४७४

मनोमय पुरुष को प्राप्त होनेवाले स्वर्ग वे

 हैं... ४८०

सूर्य, व्यूह रश्मीन् समूह... ४९३ टि०

मनोमय पुरुष से ऊपर विज्ञानमय पुरुष

उपलब्ध हो जाने के बाद भी एक पग

शेष रह जाता है ५०५

आनन्द ही वास्तविक सृष्टिकारी तत्त्व ५१४

अनात्म्यं अनिलयम् ५९३

जो कोई उसे सत् के रूप में देखता है वह

वही सत् बन जाता है, जो उसे असत्

रूप में.. ५९५

यदि यह आनन्द का गुह्य आकाश न

होता... ६०१

सूर्य देखनेवाली आंख के दोषों से प्रभावित

नहीं होता... ६५२

सर्वं ब्रह्म, अनन्तं ब्रह्म, ज्ञान ब्रह्म, आनन्द

ब्रह्म ७०९

प्रकाश से बारंबार सुदीर्घ निर्वासन ७९१

नायमात्मा बलहीनेन लभ्य: ७९६

''पश्यति'', ''ईक्षण किया'' ८५२

ब्रह्म को... मात्रास्पर्शों द्वारा जानता है

८८६

 १०११


 

गीता

 

यों यच्छद्ध: स एव स: ४४,६३६,७८७

शब्द ब्रह्मातिवर्तते ५५ टि०

श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ५५ टि०

सब जीवों के हृद्देश में ईश्वर विराजमान है,

ईश्वर: सर्वभूतानां  हृद्देशे... ९९,

८२१

माया के द्वारा यंत्रारूढु की भांति चला रहा है

९९,२५५,८२१

सहयज्ञाः प्रजा सुष्टवा... १०८ टि०

मानुषीं तनुमाश्रितम् १३२, १६२ टि०

मुक्त आत्मा को भी जीवन के सभी कर्म

करते रहने चाहियें १३८

ज्ञानी मनुष्य को अपने जीवन के ढंग से

लोगों को संसार-कर्म से हटाना नहीं

चाहिये १४६

यदि मैं कर्म न करूं तो... १४६

परं भावम् १६१ टि०

पत्र पुष्प फलं तोयं यो मे भत्या

 प्रयच्छति... १६४ टि०

कर्म के प्रेरक के रूप में फलों की कामना

का त्याग १७९

''धर्म'' २०४ टि०

सब धर्मों का त्याग कर मेरी शरण ले २१०,

२७८,७१९

स निश्चेयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा

२२२ टि०, २४७ टि०

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

२२४ टि०

अंश: सनातन: २३१ टि०,  ४३९

पराप्रकृतिर्जीवभूता २३१ टि०, ५०३,७५४,

७७६,७८२,७८६

गुणों की क्रिया से पीछे हटकर... साक्षी

की भांति... २४०

त्वया हृषीकेष  हृदिस्थितेन यथा

नियुक्तोऽस्मि.. .२५४ टि०, ५०४ टि०

 

जो अंदर से स्वतंत्र है वह सभी कर्म करता

हुआ भी कुछ नहीं करता २७३

सर्वथा वर्तमानोऽपि  स योगी मयि वर्तते

२७४ टि०

मुक्त मनुष्य का कर्म कामना से परिचालित

नहीं... लोकसंग्रह... २७५

कर्तव्य कर्म २७६

स्वभाव के द्वारा निर्धारित कार्य... २७७

सर्वकृत् ३०१

ज्ञान परम पवित्र वस्तु है ३११

समस्त विचार को बहिष्कृत कर बिल्कुल

 विचार न करने... ३१८

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ३२१

समाधिस्थ ३२४

अहंभाव से मुक्ति की मांग सूक्ष्म...

अर्जुन... ३३४

इन रुधिर लिप्त भोगों को भोगने से तो...

 ३३४

ये दुर्बलता, भ्रम और अहंकार हैं जो तेरे

अंदर बोल रहे हैं... युद्ध कर

विजय प्राप्त कर... ३३४

युक्ताहार विहार का सिद्धांत ३५१

एषा ब्राह्मी स्थिति पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति

३६८

तीन पुरुष : क्षर, अक्षर, परात्पर ३८३

सर्वं ब्रह्म ४०७,७०९

केवलैरिन्द्रियै: ४०९ टि०, ४१०

प्रविलीयन्ते कर्माणि ४११

हर्ष किंवा शोक में सब भूतों को आत्मवत्

देखना ४२२

दुःखम् आप्तुम् ५३८

सर्व कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते ५५५

यस्मात् क्षरमतीतो... स सर्ववित् भजति मां

सर्वभावेन... ५५६

भक्ति से मनुष्य मुझे पूर्ण रूप से जान लेता

है ५५७

ज्ञान की भांति भक्ति से भी पुरुषोत्तम के

१०१२


 

साथ सायुज्य... ५६०

तथैव भजते ५६८

तुम जीवन में मेरे निमित्तमात्र बनो

 ५७५

सर्वलोकमहेश्वरं सुहृद सर्वभूतानाम् ५७५

योगक्षेम वहाम्यहम् ५७६,५७७

भक्त चार प्रकार के ५७८ टि०

निम्न प्रकृति की चार ग्रन्थियां : कामना,

अहंकार, द्वंद्व और त्रिगुण ६८५

सर्वारम्भपरित्यागी ६८७

जिस प्रकार समुद्र में आधी नौका को उड़ा

 ले जाती है... ६८८

समं ब्रह्म ७०५

समत्व योग उच्चते ७०५

राज्यं समृद्धम् ७१२

मैं तुझे सब पापों और बुराइयों से मुक्त कर

दूंगा, शोक मत कर ७११

न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ७२६

ब्रह्मसंस्पर्शमू अत्यन्तं सुखम् अश्रुते ७२६,

७४०

आत्मरति: ७२६

बाह्यान् स्पर्शान् ७२७

स्वल्पम् अपि अस्य धर्मस्य ७३८

निराश्रय: ७४०

अंत:सुखोडन्तराराम: ७४०

विभूतिमत सत्त्व श्रीमद् ऊर्जितमेव वा ७५५

योग: कर्मसु कौशलम् ७९७

 

 बाइबिल

 

 मेरे भगवत्पाप्ति के उत्साह ने मुझे पूर्णतः

 

 ग्रस लिया है  ५८

 

 भागवत पुराण

 

मुझे न तो आठों सिद्धियों से युक्त परमपद

की.. २७३

 

विवेकानन्द

 

 

मुझे न तो आठों सिद्धियों से युक्त परमपद

की.. २७३

 

 

वेद

 

यत्सानो: सानुमारुहद्... १३४ टि०, ८५५५;

 भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् [भूरि कर्त्वम्] १३४

टि०, ७९२

यज्ञ १३६,४२३

सदस- गृह, धाम, पद, भूमि, क्षिति ४०४

ऋतं ज्योति: ४८८

सविता सूर्य ४९२

ऋतं भद्रम् ४९२

देवानामदब्धानि व्रतानि ५०१

पराद्धें परमस्यां परावति ५०४

ऋतस्य स्वे दमे ५९०

ऋतेन ऋतम् अपिहितम्... दशशता

सहतस्थु:, तद् एकम् ५९०

नाना देव एकमेव भगवान् के व्यक्तित्व

५९२

सूर्यस्य द्वारा ६८३

सत्यम्, ऋतम् ८५४,9०४

उपरि बुध्रे ८६७

बुध्रे ऋतस्य ८६७

महान्, बृहत् ९०३

१०१३


इस योग में हमने अपने सामने जो लक्ष्य रखा है वह इससे लेशभर भीं कम नहीं हैं कि हम अपने भूत और वर्तमान के उस सारे ढांचे को तोड़ डालें जो साधारण भौतिक तथा मानसिक मनुष्य का निर्माण करता है और उसके स्थान पर अपने अन्दर दृष्टि के उस नवीन केन्द्र तथा कर्मण्यताओ के उस नये संसार की रचना करें जो एक दिव्य मानवता या अतिमानव-प्रकृति का गठन करेंगे ।... मन को मन ही बने रहना छोड़कर अपने से परे की किसी वस्तु से प्रकाशमान बनना होगा । प्राण को एक ऐसी विशाल, शान्त, तीव्र और शक्तिशाली वस्तु में बदल जाना होगा जो अपनी पुरानी अन्ध, आतुर एवं संकीर्ण सत्ता को या क्षुद्र आवेग एवं कामना को पहचान तक न सके । यहां तक कि शरीर को भी परिवर्तन में से गुजरना होगा और आज की तरह एक तृष्णामय पशु या बाधक रोड़ा न रहकर आत्मा का सजग सेवक और तेजस्वी यन्त्र तथा जीवन्त विग्रह बनना होगा ।

-श्रीअरविन्द

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